एक बेहतरीन स्कॉलर, कई भाषाओं के जानकार अंग्रेजी के विद्वान और होम्योपैथी पर कुल 7 किताबों के अलावा तमाम मसले मसायल पर 15 किताबें लिखने वाले मेरे उस्ताद मरहूम आफाक सिद्दीकी की दास्तान ए ज़िंदगी की एक झलक…!
मैंने आज तक की ज़िंदगी में उनके जैसा इंसान नहीं देखा, और शायद ही उनके जैसे किसी और को देख पाऊं भी। गज़ब की शख्सियत थी उनकी। पूरी ज़िंदगी उन्होंने अपने बनाये हुए कायदे कानून के मुताबिक जी। वक़्त की इतनी क़द्र वो करते थे कि उससे बढ़कर उन्होंने कुछ माना ही नहीं और यही वजह थी कि उन्होंने जिस मुक़ाम पर जाने की ख्वाहिशें रखीं उनके मज़बूत इरादों ने उन्हें वहां तक पहुंचाया भी। 81 वर्षों तक अपने बनाये हुए उसूलों के मुताबिक़ ज़िंदगी जी कर 14 अक्टूबर 2020 को वो दुनिया ए फ़ानी से रुख़सत हो गए।
30 जून 1940 को एक ज़मीदार खानदान में जन्मे आफाक सिद्दीकी साहब का बचपन बड़ा दुखदाई रहा। उनके जन्म के बाद उनकी वालिदा का इंतेक़ाल हो गया, इस लिए मां के प्यार से वो महरूम रह गए। कुछ समय बाद जब वो दस बरस के हुए तो उनके वालिद साहब भी चल बसें। इस लिए उनकी परवरिश ननिहाल में उनके मामू लोगों के देखरेख में हुई। आगे चलकर उन्होंने तालीम हासिल करने के लिए आजमगढ़ शिबली कॉलेज में अपना दाखिला ले लिया। 12वीं तक कि शिक्षा पास करने के बाद वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी चले गए और वहां उन्होंने अंग्रेजी विषय से पोस्ट ग्रेजुएट किया। अंग्रेजी भाषा मे उनकी रुचि दसवीं से ही रही और आगे चलकर उन्होंने अंग्रेजी में महारत हासिल कर ली। उनकी इस क़ाबिलियत को देखकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी ने उन्हें अंग्रेजी का लेक्चरर अपॉइंट किया और चार वर्षों तक वे वहीं अंग्रेजी पढ़ाते रहे।
एमएमयू के बाद उन्हें कश्मीर यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप मिल गयी और वहां भी वे चार बरस तक अध्यापन कार्य करते रहे। 70 के दशक में कश्मीर यूनिवर्सिटी के इंग्लिश डिपार्टमेंट के सबसे बेहतरीन लेक्चररों में से एक थे जो अपनी सख्त मिजाज़ी के तौर पर भी यूनिवर्सिटी कैम्पस में जाने जाते थे।
वो कश्मीर यूनिवर्सिटी के दिनों की बड़ी दिलचस्प बातें किया करते थे। वे कहते थे उनकी ज़िंदगी सबसे प्यारे लम्हें कश्मीर के थे। वहां उनकी मुलाकात हुई एक बेहद लाजवाब शख्सियत डॉक्टर रमन जी से जो इंग्लिश डिपार्टमेंट के एच ओ डी थे और विश्वविधालय में प्रोफेसर जयरामन के नाम से बहुत चर्चित थे। वो इस लिए भी की वो भारतीय वैज्ञानिक सीवी रमन जी के परिवार से थे।
चार साल तक वो कश्मीर यूनिवर्सिटी में पढ़ाते रहे और इस दौरान उनके सबसे अच्छे रिश्ते प्रोफेसर जयरामन से बने। मैं अक्सर उन्हें किसी न किसी बात का हवाला देते हुए प्रोफेसर जयरामन का नाम लेते बहुत सुनता था। यानी आफाक सिद्दीकी साहब उनकी कई बातों का अनुसरण भी करते थे। अपनी ज़िंदगी के आखिरी समय तक वे प्रोफेसर जयरामन के व्यक्तित्व और उनकी बातों को खूब याद करते रहे। हालांकि ये रिश्ता महज़ चार साल का ही रह लेकिन दोनों का अंग्रेज़ी भाषा के प्रति जो प्रेम था उससे नज़दीकियां बढ़ती गयीं।
1970 में कश्मीर यूनिवर्सिटी से वो नाइजीरिया चले गए। वहां जाने पर नाइजीरियन सरकार ने उनकी क़ाबिलियत को देखते हुए उन्हें एजुकेशन अफसर नियुक्त किया। वहां उन्होंने दस बरस तक सेवा दी और कई और भाषाओं पर गहरी पकड़ बना ली। अंग्रेजी के अलावा जर्मन, फ्रेंच अमरीकी , हिब्रू, ग्रीक और पर्सियन भाषाओं के भी अच्छे जानकार हो गए। उर्दू अदब में उनकी पसंद के ग़ालिब और मीर तक़ी मीर थे और मौलना रूमी का गहरा असर उनकी ज़िंदगी पर पड़ा। वो अक्सर बात-बात में रूमी को कोट किया करते थे।
उनका जितना भी वक़्त मुझे नसीब हुआ उतने में बहुत कुछ मैंने उन्हीं से सीखा जाना और समझा। उन्होंने कभी खुद को कम्युनिस्ट नहीं कहा लेकिन उनके विचार और उनकी पसंदीदा शख्सियतें ज़्यादातर सब कम्युनिस्ट ही रहीं। उन्होंने ही मुझे सबसे पहली बार अल्जीरिया की क्रांति में विश्व विख्यात लेखक जीन पॉल स्त्रगे के बारे में बताया तो मेरी जिज्ञासा हुई स्त्रगे को और जानने की। उन्होंने ही मुझे बताया कि अल्बर्टो मोरविया ने कैसे अपने क्रांतिकारी लेखन से मुसोलिनी के फासीवाद को चुनौती दी। जब भी उनसे बातें हों वे मार्क्स से लेकर माओ तक खूब बताते रहे।
नाइजीरिया से भारत लौटने पर उन्हें दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में अपना अध्यापन कार्य शुरू किया और अपने रिटायरमेंट के दिनों तक वे यहीं पढ़ाते रहे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने पूरा समय सिर्फ होम्योपैथी रिसर्च को दिया जिसको लेकर उन्होंने 7 किताबें लिखीं। इसके अलावा उन्होंने अलग अलग मसले मसाईल पर कुल 15 किताबें लिखीं। दिल्ली में अबुल फजल के पास भास्कर अपार्टमेंट में स्थित अपने आवास से वे मुफ्त में लोगों का होम्योपैथी इलाज करते रहे और लोगों को इसके लिए जागरूक करते रहे। उन्होंने सिर्फ दूसरों के अच्छे स्वस्थ और बीमारी से निजात दिलाने के लिए ही इतनी मेहनत की। जिसके लिए वो फादर ऑफ होम्योपैथी हैनिमैन को और अच्छे से जानने समझने के लिए पेंसिल्वेनिया भी चले गए थे।
वो जिस दुनिया में हों उन्हें खूब प्यार और दुआएँ पहुंचे.
वो हमेशा हमारे दिल में रहेंगे, उनकी बतायी हुई बातें दुनिया इंसानियत को लेकर उनके खूबसूरत ख्यालातों के साथ ही हम भी ज़िंदगी जीते रहेंगे..!
लेखक – सरताज खान
एम. कॉम & एम.ए (राजनीतिक शास्त्र)
स्वतंत्र टिप्पणीकार / आलोचक
एसिस्ट. प्रोजेक्ट मैनेजर (टेलीकॉम सेक्टर)
लेखक उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक जिले जौनपुर से ताल्लुक रखते हैं, अपने छात्र जीवन में उन्होंने
एम.कम / एम.ए (राजनीतिक शास्त्र) करते हुए छात्र राजनीति से सफर शुरू करते हुए वर्तमान में दिल्ली में बतौर एसिस्ट. प्रोजेक्ट मैनेजर (टेलीकॉम सेक्टर) में कार्यरत हैं.
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