अपनों के शहर में बेगाने होकर
किसी अपने को ढूंढ रही हूं।
नासमझ गिरते अश्कों को
अपने ही हाथों से पोंछ रही हूं।
दिल का बोझ अभी है कुछ बढ़ा हुआ
गैरों में अपनों का धोखा हुआ।
राह में चलते चलते
किसी से ठोकर लगी,
जरा झुक कर देखा, तो पाया
एक बेगाने की अर्थी थी।
उसे ही अपना बनाने की ललक में
जैसे ही एक फूल हाथ में उठाया,
उसके ठंडे जिस्म से एक दर्द भरी आवाज उमरी, ठहरो!
मुझे अपना ना बनाओ।
मेरे प्यारों ने ही सड़क पर
लाकर खड़ा किया मुझे।
मेरे लाडले सुख के पालने में झूल रहे हैं।
मैं उनके दर पर अंतिम संस्कार को तरस रहा हूं।
उस वक्त दिल के किसी कोने से
एक ही आवाज उभरी,
क्या फायदा ऐसे रिश्तो से?
जो स्वार्थ को अपना धर्म बनाते हैं।
इन्हीं अपनों की भूल भुलैया में पड़कर
हम अपने अंतिम संस्कार को भी तरस जाते हैं।
By- प्रीति खन्ना
