वाराणसी। काशी के कण-कण में भगवान शंकर का वास है, लेकिन महादेव की इस पावन नगरी में कई अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी है। इनमें से कई मंदिर ऐसे भी है जो काफी चमत्कारी और अद्भुत है। आज हम आपको एक ऐसे ही मंदिर के बारे में बताने जा रहे है, जिसके बारे में जानकर आपको भी हैरानी होगी। दरअसल, हम जिस मंदिर की बात कर रहे है वो मां काली का मंदिर है, और यहां माता कुंवारी स्वरुप में विराजमान है। आइए जानते है इस मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा के बारे में…
कुंवारी स्वरुप में विराजमान है मां काली
महाकाल और महाकाली के विकराल स्वरूप का वर्णन वेदों और पुराणों में मिलता है। जहां महाकाल भगवान शिव का रौद्र रूप है, वहीं महाकाली माता पार्वती का रौद्र रूप है। शिव और शक्ति के विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या वेदों और पुराणों ने भी किया गया है। लेकिन क्या आपने कभी महाकाली के कुंवारी स्वरूप का दर्शन किया है! यदि नहीं तो फिर चलिए बताते है काशी में कहां स्थित है ये मंदिर..
ये है पौराणिक मान्यता
दरअसल, काशी के पंचगंगा घाट स्थित तैलंग स्वामी मठ में माता मंगला काली की प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि एक बार तैलंग स्वामी (जिन्हें शिव और कृष्ण का अंशावतार माना जाता है) गंगा स्नान कर अपने साधना स्थल की ओर लौट रहे थे। तभी रास्ते में उन्हें एक छोटी बच्ची मिली। स्वामी जी ने उस बच्ची में माँ के स्वरूप को पहचान लिया और उन्हें प्रणाम किया।
मंगला काली के रुप में विराजमान है मां
जिसके बाद उस छोटी सी बच्ची ने स्वामी जी की उंगली पकड़ जिद करने लगी कि मैं भी आपके साथ चलूंगी। मुझे अपने साधना स्थल के निकट कोई स्थान दीजिए। इस पर स्वामी जी उस बच्ची को अपने साथ लाए और उसे अपने पीछे स्थान दे दिया। तत्पश्चात महाकाली वहीं पर मंगला काली के रूप में विराजमान हो गईं।
तैलंग स्वामी के नाम से जाना जाता है मंदिर
वैसे तो इस मंदिर को लोग तैलंग स्वामी के नाम से जानते है, ऐसा कहा जाता है कि बिना तैलंग स्वामी के दर्शन के मां का दर्शन अधूरा माना जाता है। वहीं स्वामी जी के ठीक पीछे मां काली की प्रतिमा है। त्रिलंगा स्वामी एक हिंदू योगी थे और अपनी रहस्यवादी आध्यात्मिक शक्तियों के लिए प्रसिद्ध थे। जीवन के उत्तरार्ध में इन्होंने वाराणसी में निवास किया। इनकी पश्चिम बंगाल में भी बड़ी मान्यता है, जहां यह अपनी यौगिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों तथा लंबी आयु के लिए प्रसिद्ध रहे। कुछ लेखों के अनुसार त्रिलंगा स्वामी की आयु लगभग 300 वर्ष रही। जिसमें इन्होंने वाराणसी में लगभग (1737 – 1887), 150 वर्ष का समय व्यतीत किया। कुछ लोग इन्हें भगवान शिव का अवतार भी मानते थे। श्री रामकृष्ण ने इन्हें वाराणसी के “सचल विश्वनाथ” (चलते फिरते शिव) की उपाधि भी दी थी।